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इस बार होली मनाने का नहीं है मन, अंदर से व्यथित हूँ: के पी मलिक

इस बार  होली मनाने का नहीं है मन, अंदर से  व्यथित हूँ:  के पी मलिक

(विशेष संवाददाता) नई दिल्ली। राष्ट्रीय राजधानी के पत्रकारों की यूनियन ‘दिल्ली पत्रकार संघ’ के महासचिव के पी मलिक ने कहा कि होली की पूर्व संध्या पर वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रेस असोसिएशन के अध्यक्ष श्री जयशंकर गुप्त का मैसेज आया कि इस वर्ष होली पर मन बहुत उदास, खिन्न और उद्विग्न हैं। तो उन्हीं की प्रेरणा से मैंने और मेरे कुछ सहयोगियों ने यह निर्णय लिया कि इस साल होली ना मना कर उन लोगों को सम्मान और श्रधांजलि देने का प्रयास किया। जो इन दंगों से प्रभावित हुए या मारे गये। बाकी रही सही कसर इस महामारी कोरोना ने पूरी कर दी। इसीलिए इस साल होली पर आने वाले संदेशों के साथ रंगों की बौछार तन मन को भिगो नहीं भिगोयेंगी। बल्कि पूर्वी दिल्ली के कुछ इलाकों में लहू लुहान हुई हमारी दशकों नहीं सदियों पुरानी गंगा जमुनी तहजीब और संस्कृति का एहसास करा रही हैं। किस तरह हमारी सड़कों और गलियों में दिखने वाला भाईचारा अचानक एक दूसरे के प्रति संदेह और अविश्वास में बदल गया। राम-रहीम के बंदे इन्सान के बजाय शैतान बन गये। एक दूसरे को मारने, काटने, लूटने, संपत्तियां जलाने और नष्ट करने में लग गये। सियासत कामयाब हो गई। दंगाई मानसिकता और दंगों का शिकार बने अथवा बनाए गये। लोगों ने एक बार भी नहीं सोचा कि बाद में हमें इन्हीं गलियों और मोहल्लों में रहना और जीना है। दंगों के दौरान मानवता और इन्सानियत के जीवित रहने के कुछ बेहतरीन और भरोसेमंद उदाहरण भी दोनों तरफ से सामने आए, जो भविष्य के लिए बेहतर संकेत हो सकते हैं लेकिन क्या वे काफी हैं? और भविष्य में भाईचारे की बहाली में मददगार हो सकते हैं! इन्हें मजबूत करने और बढ़ावा देने की जिम्मेदारी हमारी और आपकी है।

आंकड़ों के मुताबिक 54 लोगों (जिनमें हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी) की जान लेने और करोड़ों रुपये की संपत्ति को साप्रदायिकता की आग के हवाले करने वाले इन दंगों के लिए कौन जिम्मेदार और गुनहगार है? कहना मुश्किल है लेकिन एक पत्रकार और मीडियाकर्मी के बतौर खुद को भी किसी न किसी रूप में जिम्मेदार और कसूरवार जरूर मानता हूँ। यह भी एक कारण है कि जब भी मेरे पास हमारे किसी अभिन्न मित्र या शुभचिंतक की रंग भरी होली की बधाई और शुभकामनाएं आ रहीं हैं, मुझे इन रंगों में पूर्वी दिल्ली के दंगों में मारे गये, हिन्दुओं और मुसलमानों का लहू नजर आ रहा है। मैंने आत्मशुद्धि के इरादे से इस साल होली नहीं मनाने का निश्चय किया है।

आप तो होली मनाइए। मेरी शुभकामनाएं भी अपने साथ शामिल कर लीजिए, लेकिन एक बार पूर्वी दिल्ली के दंगों में मारे गये (अधिकतर बेकसूर) लोगों के बारे में भी एक पल के लिए सोचिएगा जरूर! और यह भी कि नफरत की राजनीति से प्रेरित-प्रोत्साहित सांप्रदायिकता की आग की लपटें तेजी से हमारी और आपकी ओर भी बढ़ रही हैं। सजग और सचेत नहीं हुए तो जाति और धर्म का फर्क किए बगैर, हमें और आपको भी ये लपटें अपनी जद में लेने से चूकने वाली नहीं हैं।

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