6 दिसंबर 1992 एक अनकही कहानी

अमर के साथ जाना हम दोनों के लिए ही मुनासिब नहीं है, भाभी जी,वरना मैं उसके साथ जरूर जाता । जावेद भाई के इस कथन को कांपते हुए बड़े अविश्वास के साथ मैंने अपनी सहमति दी । बालकनी में नन्हीं अंकिता को गोद में उठाए काफी देर तक उस ओर देखती रही जिधर से मेरे पति ट्रेन की नई टिकटों और पैसों की व्यवस्था करने गए थे । बम्बई (मुम्बई तब इसी नाम से जानी जाती थी ) के अंधेरी के ओएनजीसी कंपनी के इस रिहाइशी बिल्डिंग की 8वीं मंजिल के छोटे से फ्लैट में, मैं अपनी दो वर्षीय बेटी के साथ उस वक्त बेहद असहाय महसूस कर रही थी । 6 दिंसबर,1992 को अयोध्या में विघटित बाबरी मस्जिद के अवसान की प्रक्रिया ने पिछले हफ्ते के मैत्रीपूर्ण वातावरण को बेहद बोझिल बना दिया था । तेजी से बदले समय चक्र ने दोनों परिवारों को एक विचित्र परिस्थिति में डाल दिया था ।  पिछले हफ्ते जब मैं और मेरे पति अपनी बेटी के साथ बंबई और गोआ की 10 दिनों की यात्रा के पहले पड़ाव बंबई में उतरे तो उस महानगरी में हमारी पहचान वाला वही एकमात्र परिवार था । जावेद मेरे पति के बचपन के मित्र हैं । उनसे , उनकी पत्नी नसरीन और बेटों अफ़्फ़ान(9 वर्ष) और अदनान (4 वर्ष) से मिलने का यह मेरा पहला अवसर था ।  बंबई में मैं तो अपने बालसखा के घर ही रूकूंगा । पतिदेव के इस प्रस्ताव का मैंने विरोध किया था  पर जिस गरमजोशी और अपनेपन से हमारा स्वागत हुआ, एक अनजान परिवार में रूकने की मेरी सहज हिचकिचाहट ने जल्द ही मेरा साथ छोड़ दिया ।
दोनों पति,पत्नी ने बंबई भ्रमण में हमारा भरपूर साथ दिया । 3 दिनों बाद हम अपने अगले पड़ाव गोआ की तरफ चल दिए । वापसी में घर लौटने के लिए हमें ट्रेन बंबई से ही पकड़नी थी । गोआ से लौटने के बाद हमारे पास एक और शाम भी अपने सुह्रदय मेजबानों के साथ बिताने के लिए । जावेद भाई साहब ने बड़े उत्साह से जुहू बीच और मैरिन ड्राइव पर घूमने का कार्यक्रम बनाया । उनके अनुसार बंबई आकर यदि लोकल ट्रेन का सफर नहीं किया और रात को  मैरिन ड्राइव का सफर गाड़ी से नहीं किया तो बम्बई दर्शन अधूरा रहेगा । हम सभी एक बड़े परिवार की तरह पूरी शाम जूहू बीच और और मैरिन ड्राइव पर घूमते रहे, देश और दुनिया से बेखबर । वो शाम और कोई नहीं बल्कि 6 दिसंबर,1992 की थी ।  जब उत्तर भारत के अयोध्या के प्राचीन नगर में हिंदुओ और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का राजनैतिक फायदा उठाया जा रहा था और समय के पन्नों पर कभी ना धोया जा सकने वाला  इतिहास रचा जा रहा था । ठीक उसी समय बम्बई महानगरी की भीड़भाड़ में दो हिंदु और मुस्लिम परिवार अपनी मित्रता और मानवता की उस कहानी का शुभारंभ कर रहे थे, जो आजतक मेरी उदासीनता की वजह से संसार की आंखों से ओझल ही रही ।  वास्तव में भारत की इस अनेकता में एकता ने देश की जड़ों को मजबूती से जमा रखा है । अगले दिन की सुबह भी आम सी थी, पर  बाबरी मस्जिद की विध्वंसता की खबर ने उसे हमेशा के लिए खास बना दिया । हम सबने अखबार के पहले पृष्ट में छपे तथाकथित राम भक्तों के हिंदुत्व को शर्मसार करते हुए इस कृत्य को बड़ी  असहजता के साथ पढ़ा ।  कमरे में फैली गहन चुप्पी को जावेद भाई साहब की आवाज ने तोड़ा, आज  मैं दफ्तर नहीं जाऊँगा । आप लोग भी शायद ट्रेन नहीं पकड़ सकेंगे ।  हम दोनों इस कथन का अभिप्राय तब नहीं समझ पाए । भाई साहब ने चुपचाप उठकर टीवी चालू किया ।  बीबीसी चैनल से सीधा प्रसारण आ रहा था । जीवन में पहली बार हिंदु होने पर संकोच हो रहा था । थोड़ी ही देर बाद बम्बई के संवेदनशील इलाकों में हिंदु मुस्लिम दंगों की खबरें आने लगी । दोनों ही परिवार अपने सहधर्मियों के कृत्यों से शर्मिंदा एक दूसरे से सिर्फ सहानुभूति ही दिखा पा रहे थे । उस क्षण वहाँ सिर्फ मानवता सांस ले रही थी ।  नसरीन ने चुपचाप रोज की तरह घर के काम निपटाए और मैंने भारी मन से उसका साथ निभाया । एक हफ्ते बाद जब थोड़ी शांति बहाल हुई तो मेरे पति को नई टिकटों और पैसों की व्यवस्था के लिए बाहर जाना पड़ा । उस दौरान जावेद और नसरीन सच्चे शुभचिंतक की भांति मेरा मनोबल बढ़ाते रहे । परंतु जो लाचारी और उदासीनता इस  घटना ने उनके चेहरे पर मढ़ दी थी, उससे मेरा आत्मविश्वास डगमगा रहा था । उस जमाने में मोबाइल सेवा भी उपलब्ध नहीं थी । जिससे मैं पति का हाल जान पाती । शाम को जब ये घर लौटे तो हमने राहत की सांस ली । इनके मुख से बम्बई महानगरी की तबाही सुनकर सभी के रोंगटे खड़े हो गए । जावेद भाई साहब ने कहा शुक्र है आप  लोग हमारे साथ ठहरे वरना किसी होटल या गेस्ट हाउस में ठहरना खतरे से खाली न होता ।  इस बात ने मेरे दिमाग पर गहरा असर किया ।  हम दोनों काफी डरे हुए थे  और जल्द से जल्द अपने शहर लौटना चाहते थे ।  7 दिसंबर के बाद 13 दिसंबर की टिकटें मिली । ये दिन जावेद और नसरीन के सहयोग से सुरक्षित रहे ।  तय दिन दोनों ने सगे संबंधियों की भांति हमारे सफर की तैयारियां की । चलते समय जावेद भाई साहब ने मुझसे माथे पर बिंदी न लगाने का अनुरोध किया । इससे मेरी पहचान सहजता से एक हिंदु स्त्री के रूप में होने की आशंका थी ।  पतिदेव ने भी मित्र का समर्थन किया , परंतु मेरे संस्कारों ने भी आतंकियों के आगे झुकने से इंकार कर दिया ।  जावेद भाई साहब ने एक आखिरी आशंका जताई और अनुरोध किया कि ट्रेन यदि किसी कारणवश कैंसिल हो जाए तो किसी अनजाने होटल में ठहरने की बजाय उनके घर लौट आएं ।  टैक्सी चालक एक बुजुर्ग सरदार जी थे । रास्ते भर हम दोनों चुपचाप बैठे दंगे से झुलसी बम्बई को देखते रहे । अचानक ही एक दंगाइयों की टोली आती दिखाई दी ।  सरदार जी ने बड़ी चतुराई से टैक्सी दूसरी तरफ मोड़ ली , भाग्यवश सामने से सेना की एक टुकड़ी फ्लैग मार्च करती दिखी ।  दंगाई भाग खड़े हुए और हम सबकी जान में जान आई ।  इसी प्रकार जब बचते बचाते  कुर्ला स्टेशन पहुंचे तो वहॉं का नजारा देखकर और भी भयभीत हो गए ।
रेलवे प्लेटफार्म और स्टेशन पर भारी भीड़ थी । अंदर जाना मुश्किल था । बाहर ही पूछताछ की तो पता चला कि ट्रेन कैंसिल थी और अगले दिन 3 बजे आएगी ।  सरदार जी ने हमें वापस लौटने की सलाह दी हालांकि हम वापस न लौटने पर विचार कर रहे थे । रात के तीन बजे सुनसान बम्बई के रास्तों से गुजरते हुए ओएनजीसी कॉलोनी पहुंचे । हमने सरदार जी का धन्यवाद किया और फलैट की कॉलबैल दबाई । दरवाजा तुरंत खुला और सामने जावेद भाई और नसरीन भाभी खड़े थे । मानों उन्हें हमारे लौटने का पूर्वाभास था । अगले दिन फिर एक बार फिर मित्र परिवार से विदा लेकर कुर्ला स्टेशन निकले । दिन के उजाले में दंगों से झुलसी बम्बई का अलग ही रूप देखने को मिला । कहीं बसें और गाड़ियॉं जली पड़ी थी तो कहीं दुकानों की पूरी की पूरी कतारें ही झुलसी पड़ी थी ।  झुग्गी झोपड़ी, मकान सभी जले और क्षतिग्रस्त दिखाई दिए ।  कौन जानता था कि विधाता हमें बम्बई दर्शन का सबसे दुखद और विभत्स रंग भी दिखाएगा । लगभग खाली ट्रेन में बैठकर हमने ईश्वर और जावेद और नसरीन का मन ही मन धन्यवाद किया ।
आज भी किसी आतंकी हमले या सांप्रदायिक दंगे की खबर टीवी पर देखती हूं तो मन बरबस 6 दिसंबर,1992 को याद करता है । जब भी मीडिया के सामने दोनों समुदायों के राजनैतिक और धर्मगुरूओं को हिंदु मुस्लिम एकता का खोखला प्रदर्शन करते देखती हूं तो दंगों से तनावग्रस्त बम्बई की अंधेरी के उस छोटे से फ्लैट में जन्में धार्मिक एकता और भाइचारे के उन जीवंत पलों के आगे मेरा मन नतमस्तक हो जाता है ।  ये विश्वास और भी गहरा हो जाता है कि जिस देश की नींव हम जैसे साधारण नागरिकों के प्रेम और सदभाव पर टिकी है उसे कोई भी आतंकी एवं अलगववादी षडयंत्र कर नहीं डिगा सकता ।
सीमा वर्मा
पत्नी श्री अमरनाथ वर्मा
सेवानिवृत्त कार्यकारी निदेशक (मानव संसाधन)
एनटीपीसी, नई दिल्ली

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