जब भी सरकार चुनाव में जाती है चुनाव का मुद्दा विकास न होकर धर्म, हिन्दू मुस्लिम की तरफ बढ जाता है

राजनीति के अपने बोल, मंत्री जी ने खोली पोल

(बृजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार)  जब भी सरकार चुनाव में जाती है। तो चुनाव का मुद्दा विकास न होकर धर्म, हिन्दू मुस्लिम की तरफ बढ जाता है।जबकि चुनाव विकास के मुद्दे पर बेरोजगारी कोरोना काल मे चौपट हो रही व्यवस्था पर लड़ा जाना चाहिये। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एआईएमआईए के प्रमुख ओवैसी साहब का भी उत्साह बिहार चुनाव के बाद आसमान पर है । जिनका रहना कई बार बीजेपी के लिये संजीवनी का काम करता रहा है। भले ही बात की जाय विकास की,लेकिन ममता दीदी के बंगाल में भआ विकास का प्रभाव कहीं नजर नहीं आता। भले ही दीदी बहुत ही सादगी पूर्ण जीवन बिताती हैं। लेकिन बंगाल में आम जन जीवन में बहुत सुधार नहीं हो पाया है।दिल्ली में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के विवाद की तरह बंगाल में बीजेपी लगातार अपनी जमीन तलाशनें के लिये सक्रीय रही है। कई बार ममता दीदी पर रोहिंग्या के संरक्षण का भी आरोप भी बीजेपी लगा चुकी है। जबकि सच्चाई इससे इतर है। पहली बार ऐसा नजर आ रहा है कि ममता दीदी को बंगाल में बीजेपी से कड़ी टक्कर होने की संभावना है। संभव है कि जीत हार का भी फासला कम हो। । लेकिन राजनीतिक चश्मे के इतर भी देश समाज राज्य को देखने की आवश्यकता है ।जब देश में भी सरकारी प्रतिष्ठानों की बोली लगाई जा रही है। कभी किसान ,कभी बैक कर्मचारी, कभी मंडी के लोग कभी व्यापारी सड़क पर उतर रहे है ।सरकार को विचार करने की आवश्यकता है कि कुछ गड़बड जरूर है । क्योंकि सरकार अभी नहीं विचार कर सकी तो संभव है कि आगे विचार करने का समय न मिले । परन्तु अगर समय रहते सरकार सचेत हो जाय तो संभव है कि सरकार का विरोध रूक सके।
यह बात बंगाल, बिहार, असम या उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड का नही है। यह यदा कदा पूरे देश की स्थिति हो रही है। एक तरफ यूपी में स्कूल बंद कर ,लाकडाऊन की तरफ बढ़ रहा तो दूसरी तरफ बंगाल बिहार असम चुनाव में चल रही रैलियों से कोई कोरोना नहीं हुआ। वैक्सीन के बाद भी कोरोना के रफ्तार पकड़ने के कई अन्य कारण भी हो सकते हैं । या तो वैक्सीन के लिये किया जा रहा है।या बंगाल चुनाव में बीजेपी का माहौल ठीक नही है । खैर जो भी हो आज जनता भले ही धुन में नाच रही है मोमबत्तियां जला रही , ढोल पीट रही। देर सबेर जागेगी भले ही उस समय देर हो चुकी होगी। ।
अगर समय रहते सरकार को भूखमरी बेरोजगारी मंहगाई पर सरकार लगाम लगा ले गयी ।तो संभव है सरकार के विरोध में फूटने वाले स्वर को आसानी से रोका जा सकता है। क्योंकि राष्ट्रीय नेता के रूप में अब भी प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं है। राज्य के स्तर पर भले ही बदलाव संभव है, परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर अन्य किसी नेता की स्वीकार्यता नही है। देश की राजनीति में राष्ट्रीय तौर पर विकल्पहीनता की स्थिति है। विपक्ष की अकर्मण्यता इसकी मुख्य वजह है। कोई भी आन्दोलन संगठित रूप से लंबे समय तक ऐसी स्थिति में चलाना संभव नहीं है। छिटपुट विरोध भले ही फूटे, सरकार नें उसे या तो कमजोर कर दिया या स्वंय खत्म हो गये।
यह कहना आसान नहीं होगा कि विपक्ष अपनी भूमिका बढ़ा पायेगा। क्योंकि दिशाहिन विपक्ष अभी तक स्वंय ही एक नहीं हो पाया है। सरकार को सिर्फ चुनौती जनता की है। अगर जनता एकजुट हो गयी तो मुखर होने में समय नहीं लगेगा। ऐसी स्थिति में राजनीतिक पासे भी पलट जायेंगे । औऱ राजनीतिक विश्लेषकों के विश्लेषण भी ध्वसत हो जायेंगें। (लेखक न्यूज चैनल में कार्यरत हैं)

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