संसद में नारेबाज़ी मुल्क़ की जम्हूरियत के साथ छल
( पार्लियमेंट से आँखों देखा तजकरा)
(के. पी. मलिक) भारतीय संसद के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार देखने को मिला कि लोकसभा सदस्य की शपथ लेते समय नये-पुराने सांसदों ने जो नारे सदन मे लगाए वो धर्म और संप्रदाय में विभाजन या दरार पैदा करने वाले प्रतीत हो रहे थे। इसकी शुरुआत सत्ताधारी दल भाजपा के सांसदों के अलावा अन्य दलों के सांसदों ने भी संसद आंरभ होते ही कर दी। सदन में ऐसा लग रहा था कि श्रीराम का मुकाबला मां काली, और गोरखनाथ का मुकाबला कन्हैया से हो रहा हो। दूसरे दिन इस सिलसिले ने कम होने के बजाय और अधिक गति पकड़ी। शपथ ग्रहण प्रक्रिया के बीच में नारे लगाने के समय पक्ष और विपक्ष सदस्यों में तनातनी भी नज़र आई। पत्रकार दीर्घा से इस नज़ारे को देख कर मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि सदन के पटल पर ये पक्ष-विपक्ष के ये नेता कभी भी जाति-धर्म और देवी-देवताओं की आड़ लेकर तीरंदाजी कर सकते हैं।सत्ताधारी भाजपा के सदस्यों की नारेबाजी के जवाब में आल इंडिया मजलिस-इ-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सांसद असदुद्दीन ओवैसी के नारे से सत्तापक्ष में हड़बड़ाहट दिखाई दी, लेकिन इसके बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं, बल्कि सत्ता पक्ष भाजपा व शिव सेना सांसद भी शपथ के साथ ही खुलकर नारेबाजी करते देखे गए। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के सांसदों के अलावा तृणमूल कांग्रेस के सांसद भी मुकाबले में धार्मिक आधार पर नारे लगाते देखे गए और इस दौरान सदन में कई बार माहौल में तनाव और नोकझोंक सुनाई और दिखाई दी।ज़ाहिर है कि यहां सवाल ये भी उठता है और हैरानी भी होती है कि जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर शपथ लेते वक्त नारे बाजी करने वालों को प्रोटम स्पीकर की ओर से कोई चेतावनी जारी नहीं की गई। उनका कहना था कि अध्यक्ष के पास संविधान के स्थापित नियम कायदों के अनुसार, कार्यवाही के संचालन के असीमित अधिकार होते हैं, ऐसे में शपथ के मौके पर संसदीय अनुसाशन तोड़ने वाले सांसदों को यह चेतावनी जारी करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए थी कि शपथ के अलावा कुछ भी सदन में बोलने वाले सदस्य को गैर शपथ श्रेणी में रखा जाएगा।
लोकसभा में सांसदों के द्वारा शपथ ग्रहण के दौरान सदन में धार्मिक नारे लगाना कितना उचित है। लोकसभा में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने अपने स्वागत भाषण में नारेबाजी का उल्लेख किया था। चौधरी ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि यह बहुदलीय लोकतंत्र की भावना का हिस्सा है।’ उनके बयान पर जवाब देते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने कहा, ‘मैं इसे लेकर स्पष्ट हूं। संसद लोकतंत्र का मंदिर है। इस मंदिर को संसद के नियमों के जरिए चलाया जाता है। मैंने सभी पक्षों से अनुरोध किया है कि हमें जितना हो सके इस स्थान की शोभा को बनाए रखना चाहिए। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। हर कोई हमारी तरफ देखता है। ठीक इसी तरह हमारी संसदीय प्रक्रियाओं को भी दुनिया भर में एक उदाहरण स्थापित करना चाहिए। अगर इस प्रकार की नारेबाज़ी सदन में होती रही तो संसद के भीतर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलेगा।
बहरहाल, लगभग सौ साल बाद भी विकास, शिक्षा, स्वस्थ और विज्ञान के मुद्दों को छोड़कर आज भी हम हिंदु-मुस्लिम और जाति-धर्म के बहाने सत्ता में पकड़ बनाकर टिके रहना चाहते हैं। इस प्रकार की घटनाओं से दोनों कौमों में एकता की भावना घटेगी और हिंदू-मुस्लिम मामलों में इज़ाफ़ा होगा। इसके बावजूद भी हिंदू सदस्य अगर वंदे मातरम का नारा लगाते हैं, तो उनके सामने मुस्लिम सदस्य उससे भी ज्यादा ज़ोर से अल्लाह-ओ-अकबर का नारा लगाते हैं। इससे कुछ हासिल नहीं होगा उल्टा तनाव ही बढ़ेगा, मेरा मानना है कि अगर नारा लगाना ही है तो वह सिर्फ “जयहिंद, जयहिंद और जयहिंद” होना चाहिए। शायद ऐसा दोबारा नहीं होगा लेकिन मैं कह सकता हूँ कि जयश्रीराम, जय भारत, वंदे मातरम् के नारे पुराने मुद्दे हैं। अगर भविष्य में भी बहस के दौरान यह नारे लगते रहे तो ये संसद की गरिमा की हानि होगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता। सांसदों के बारे में यहां जानकारी देना चाहूंगा कि लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्यों को चुनाव जीत कर आने पर संसद में एक थैला (बैग) दिया जाता है जिसमें संविधान की प्रति के अलावा सभी प्रकार के नियमों की पुस्तकें होती हैं। उसके बाद सदस्यों से ऐसी उम्मीद की जाती है कि वे इसे पढ़कर सदन में उसका अनुसरण करेंगें। एक सांसद करीब दस से बारह लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, ऐसे में उनसे जिम्मेदारी भरे व्यवहार और अलग-अलग विचार और असहमति के बावजूद संसदीय मर्यादा एवं मानदंडों के अनुरूप होने की उम्मीद की जाती है। ताकि लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं में लोगों का विश्वास कायम रहे और संसद सोहार्द पूर्ण तरीके से चले। सदन में शोर-शराबे के कारण कामकाज तो ठप होता ही है, विदेशों में देश की छवि बिगड़ती है। इस प्रकार से सदन में होहल्ला इतने बड़े ‘लोकतांत्रिक देश’ की अच्छी तस्वीर पेश नहीं करता।
(लेखक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं)